Sunday, October 9, 2011

ग़ज़ल-ए-शब


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आफताब = सूरज
सियाह = काली
माहताब = पूर्णिमा की चाँद
शवाब = जवानी
नायाब = उत्कृष्ट (magnum-opus)
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अधखुली पलकें पलकों पर सुनहरे ख़्वाब लिये
शब आज फिर सो गई,आफताब की आस लिये

सियाह रेत की चादर ओढ़कर उदास है ज़मीं भी
देख रही वो राह एकटक,माहताब की आस लिये

है चाँद बहुत दूर, फिर भी, मोहब्बत है जवान यूँ
चकोर देख रहा है क्यूँ, एक ख़्वाब की आस लिये

खिले गुलाब के छलकते हैं अश्क अंजाम सोच कर
कली मुस्कुरा रही है यूँ,अपने शवाब की आस लिये

नन्हे नन्हे हाथ, वो उनींदी आँखें,होठों पर कई उलझे हुए सवाल
लौटे जो घर, आधी रात,जान मेरी सो गई,जवाब की आस लिये

सुना तो रहा हूँ महफ़िल में, अपनी ये नयी ग़ज़ल-ए-शब
फ़िज़ा यूँ रही तो फिर लिखूंगा कुछ नायाब की आस लिये

आनंद ताम्बे "अक्स"







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