Wednesday, November 10, 2010

तलाश



मैं,
मेरा वजूद,
मेरा "अक्स",
ज़र्रा ज़र्रा होके यूँ ही,
रेत सा बिखर गया है कहीं...

उम्मीद है कहीं से,
प्यार से,
कोई घटा,
आके बरस जाये मुझ पर,
और मैं गमक उठूँ,
एक सौंधी सी खुशबू लिये...

लेकिन...

घटा आती है,
और,
बिन बरसे,
चली जाती है,
मुझको छोड़ जाती है,
फिर...
तन्हा...
उदास...

उम्मीदें फिर भी बाकी हैं...

मेरी तिशनगी,
यूँ ही,
आसमाँ पे तलाश करती है,
नमी सी,
जैसे हो लफ्ज़ कोई,
मायने की तलाश में,

तलाश बाकी है...

आनंद ताम्बे "अक्स"

तिशनगी = प्यास

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