राह की धूप कुछ कम हुई,
मुझे छूती सी एक मीठी सबा चली,
उसकी गली से मेरी गली तक,
चंद यादों की खाक उडी...
यूँ कुछ वक्त की आंधी चली,
कुछ पत्ते जो अपने से थे,
थोड़ी देर सही, रुक गये,
बेगाने थे जो, तोड़ के सभी रिश्तों को,
अनजानी राहों पे निकल पड़े...
एक शायर ने दर्द भरे,
चंद नग्मे लिखे,
टूटी कलम,
बिखर गए जज्बात,
सियाही सी फ़ैल गई उफ़क पर,
उसके भीगे हुए से मतले,
आसमाँ पे छितर गये,
कहकहे लगाते लगाते, अचानक,
अश्क निकल ही पड़े आसमाँ से...
एक बरसात यूँ हुई अबकी,
"अक्स" मुस्कुरा उठा, कुछ सोचकर, ऐसे,
इन भीगी हुई बूंदों से, शायद,
बन गया है नया रिश्ता,
फिर जमीं और आसमाँ का,
हो चाहे वो चंद लम्हों के लिये,
मुस्कुराहटें चमकेंगी सदियों तक...
आनंद ताम्बे "अक्स"
खाक = धूल
सबा = हवा
उफ़क = क्षितिज, जहाँ आसमान और जमी मिलते हुए दिखाई देते है
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