Wednesday, November 10, 2010

आना शाम का


एक बार

शाम आई थी, यूँ शोख, चंचल, मुस्कुराते हुए,
अपने सुर्ख रुखसारों से जुल्फें हटाते हुए,
मेरे ही चंद नग्मो को गुनगुनाते हुए.

वो शाम थी, कुछ उम्मीदों की,चंद हसरतों की,
कुछ बढ़ी हुई बेबाकी, कुछ दबी हुई चाहतों की,
एक पयाम देकर चल दी, जिन्हें आरजू थी बातों की.

कहना चाहते थे, वो होठ मगर,कुछ कह ना सके,
आये थे कुछ अश्क, पलकों तक, पर बह ना सके,
नज़रों ने तेरी कह दिया, मेरे बिन रह ना सके.

वो देख, तेरे दामन पे सितारे झिलमिलाते हैं,
अश्क भर के आँखों में, कहा तुमने "आते हैं".

आनंद ताम्बे "अक्स"

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