Sunday, November 13, 2011

काफ़िले चलते रहे

फूलों की खुशबू से जुड़े नहीं कभी, काँटों पे चलते रहे
एक मंजिल पर ये रुके नहीं कभी, काफ़िले चलते रहे

क्या है मज़ा जीने का,जो रुक गये पड़ावों में
यूँ बना कर और नई-नई मंजिलें, चलते रहे

कोई हमसफ़र न मिला अकेले चलते रहे
तन्हाई की तलाश में यूँ , मेले चलते रहे

आई थी याद तेरी, बहुत दिनों के बाद, ए महबूब मेरे
फिर से कई दिनों तक, यादो के सिलसिले चलते रहे

आनंद ताम्बे "अक्स"

यूँ ही कभी खुदा मिले

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कूचा = गली
सबा = हवा
कलीसा = मंदिर
काफिया = तुकबंदी का शब्द
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आज तन्हा हूँ मैं,कोई तो यूँ हमनवा मिले
तू नहीं तो ख़्वाब में,आके तेरा साया मिले

घूमता फिरता हूँ तेरे मिलने की आस लिये
तू नहीं तो, तेरे कूचे की मदहोश सबा मिले

सोचता हूँ,कह दूं, कभी, सारी दिल की बातें
अंजाम जो हो,मुझे जफ़ा मिले या वफ़ा मिले

देख लिया था एक दिन मैंने कुछ मुस्कुराके
क्या पता था अगले दिन वो कुछ ख़फ़ा मिले

ढूँढता हूँ कोई कोना,महफ़िल के आलम में
क्या पता, वहीँ कोई,मेरी तरह तन्हा मिले

काबा हो या कि कलीसा,कर लेता हूँ बंदगी
इस उम्मीद में, कि यूँ ही कभी खुदा मिले

मुददतें गुज़र गईं हैं कई,कुछ मतले लिखे हुये
कोई सूरत ग़ज़ल सी दिखे कोई काफिया मिले

मुस्कुराले "अक्स" तू,कहीं ऐसा न हो
किसी को तेरे चेहरे पे,दर्द लिखा मिले

आनंद ताम्बे "अक्स"